प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) ने न केवल वैश्विक इतिहास को प्रभावित किया बल्कि भारत के गढ़वाल क्षेत्र के सैनिकों की बहादुरी की अद्वितीय मिसाल भी पेश की। हाल ही में देहरादून के फुलवारी में आयोजित एक साहित्यिक चर्चा में लेखक देवेश जोशी की पुस्तक “गढ़वाल और प्रथम विश्व युद्ध” पर संवाद हुआ। इस चर्चा में साहित्यकार और पूर्व आईपीएस अधिकारी अनिल रतूड़ी, पूर्व कुलपति सुधारानी पांडेय, और अन्य विद्वानों ने गढ़वाल राइफल्स के वीर सैनिकों के योगदान पर प्रकाश डाला।
गढ़वाल राइफल्स और उनकी वीरता
गढ़वाल राइफल्स के नाम पर शौर्य और बलिदान की कहानियाँ अमर हैं। चर्चा में दरवान सिंह नेगी और गब्बर सिंह नेगी जैसे वीर सैनिकों का उल्लेख किया गया, जिन्होंने युद्ध में अद्वितीय साहस दिखाया। दरवान सिंह नेगी को उनकी वीरता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। उन्होंने ब्रिटिश सम्राट के समक्ष अपनी मातृभूमि के लिए कर्णप्रयाग में मिडिल स्कूल और ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलवे लाइन की मांग की, जिसे स्वीकार किया गया।
गब्बर सिंह नेगी ने भी नौव शेपल की लड़ाई में अपने अदम्य साहस का प्रदर्शन किया। शहीद होने से पहले उन्होंने अपनी प्लाटून को सुरक्षित रखा और भारतीय सैनिकों के शौर्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाई।
पहाड़ की संस्कृति और वीरता
साहित्यकार ललित मोहन रयाल ने बताया कि पहाड़ की संस्कृति में युद्ध को सुरक्षा और बलिदान का प्रतीक माना जाता है। समाज में सैनिक बनने को गर्व का विषय समझा जाता है। गढ़वाली लोकगीतों और साहित्य में इन वीरों की गाथाओं को जीवंत रखा गया है। प्रसिद्ध लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी और साहित्यकार गोविंद चातक ने अपने गीतों के माध्यम से इन वीर सैनिकों की कहानियों को अमर बनाया है।
लेखक और पुस्तक पर टिप्पणी
लेखक देवेश जोशी, चमोली जिले के निवासी, ने इस पुस्तक में गढ़वालियों की वीरता के साथ-साथ उनके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक योगदान को दर्शाया है। हालांकि, सुधारानी पांडेय ने पुस्तक की सामग्री में और गहराई और शोध की आवश्यकता पर जोर दिया। पुस्तक में गढ़वाली गीतों और सैनिकों की कहानियों को विशेष स्थान दिया गया है, जो इसे एक सांस्कृतिक धरोहर का रूप प्रदान करता है।
गढ़वालियों की पहचान और प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव
प्रथम विश्व युद्ध ने गढ़वालियों की बहादुरी को वैश्विक पहचान दिलाई। दरवान सिंह नेगी और गब्बर सिंह नेगी जैसे सैनिकों ने न केवल ब्रिटिश सेना में, बल्कि भारतीय सशस्त्र बलों में भी गढ़वालियों की पहचान को मजबूत किया।
यह चर्चा इस बात पर जोर देती है कि हमें अपनी विरासत और वीरों की गाथाओं को सहेजना चाहिए। “गढ़वाल और प्रथम विश्व युद्ध” न केवल एक पुस्तक है, बल्कि यह प्रेरणा और गर्व का प्रतीक भी है, जो हमें हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ों से जोड़ती है।
-Crime Patrol