धर्म, संस्कृति और पहाड़ी जीवन शैली का संगम रम्माण मेले का आयोजन प्रतिवर्ष अप्रैल माह में चमोली जिले के अन्तर्गत जोशीमठ तहसील के सलूड़-डुग्रा गांव में होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनेस्कों द्वारा वर्ष 2009 में रम्माण को विश्व सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा दिया गया।
रम्माण में मुखौटा नृत्य शैली का प्रयोग होता है, इसमें 12 जोड़ी ढोल और दमाऊं की धाप पर 18 तालों के साथ लोक शैली में भगवान राम की लीलाओं का आयोजन किया जाता है। रम्माण पौराणिक देव यात्रा, लोक नाटक को लोक शैली में प्रसतुत किया जाता है। ढोल-दमाऊं की धाप पर इसमें मोर-मोरनी नृत्य, बणियान, युद्ध शैली के नृत्य भी दर्शकों को रोमांचित कर देते है।
भूम्यांल देवता के आंगन में रम्याण मेले का मंथन देखने दूर-दूर के लोग और संस्कृति प्रेमीजन आते है। इस मंथन में देवी-देवताओं क्षेत्रपाल देवता की आराधना के साथ ही जागर और ढोल दमाऊं की धाप पर मुखौटा शैली में राम-सीता लक्ष्मण की नृत्य नाटिकाएं होती है। रम्माण उत्तराखण्ड में रामायण परम्परा को आगे बढ़ाने का महत्वपूर्ण कार्य करता है। रम्माण का आयोजन पूरे जोशीमठ क्षेत्र में अपना प्रभाव रखता है, लेकिन सलूड़-डुंग्रा और बरोसी-सिलंग मे इस आयोजन की भव्यता नजर आती है। रम्माण नृत्य में कई प्रतीकों का भी उपयोग किया जाता है।
संतों का प्रभाव प्राचीन समय से होना बताया गया है। इसलिए यहां विशेष रूप से रम्माण का आयोजन होता है, इसमें मल्ल युद्ध जो दिखाया जाता है, उसमेें तलवार और ढालों का प्रयोग किया जाता है।
भारत-चीन युद्ध से पूर्व इस क्षेत्र की माणा-नीति घाटी के लोगों द्वारा तिब्बत से व्यापार के प्रतीक के रूप में बंणिया-बंणियान नृत्य नाटिका भी दिखाया जाता है। पांडव नृत्य का प्रदर्शन भी मुखौटा नृत्य के माध्यम से किया जाता है। इन मुखौटों की पहले पूजा की जाती है और इनका बड़ा सम्मान किया जाता है। 18 मुखौटे होते है, जो भोज पत्र की लकड़ी से बनते है।
मातृशक्ति के सम्मानार्थ मां दुर्गा पूजा के साथ पहले गणेश जी की भी पूजा की जाती है। गांवों से पात्रों को आमंत्रित करने की स्वतंत्रता रहती है, जो समन में अलग-अलग पात्र बनकर अपना नृत्य दिखाते है। रम्माण में प्राचीन संस्कृति और धर्म का अदभुत संगम देेखने कासे मिलता है, जिसमें ढोल सागर के गूढ़ रहस्यों से भी दर्श को रोमांचित होते है, ढोल और दमाऊं को बजाने के लिए भी कुशल दक्ष कलाकारों को आमंत्रित किया जाता है।
साहसिक कुरीतियों पर इन नृत्य नाटिकाओं के माध्यम से चोट की जाती है। समाज में इन बुरी प्रथाओं को हटाने के लिए भी इनके माध्यम से संदेश दिया जाता है। भूम्यांल देवता पूरे क्षेत्र का रक्षक है, मुखौटो में नरसिंह देव का मुखौटा सबसे भारी होता है। रामकथाओं में सर्वाधिक प्राचीनतम मुखौटा नृत्य की परम्परा को रम्माण ने कई वर्षों से इस क्षेत्र में जीवंत किया हुआ है। इसमें देवी-देवताओं के नृत्य उनका मुखौटा लगाकार उन पर अवतरित होने वाले मनुष्य (पशुवा) करते है। मुखौटो को इस नृत्य श्रृंखला के पश्चात रामकथा के नृत्यों का मंचन किया जाता है। सलूड़-डुंग्रा में सभी लोग पूरे उत्साह के साथ इस रम्माण को देखते देवरे में भाग लेते है। रामायण को स्थानीय गढ़वाली बोली में रम्माण कहा जाता है।
रम्माण का आयोजन सलूड़ गांव की पंचायत करती है, जो वर्षों से इस आयोजन को कर रही है। रम्माण विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों को एक श्रृंखला के रूप में सामूहिक पूजा, देव यात्रा, लोक नृत्य, लोक नाटय, गायन मेला आदि का आयोजन होता है। वैशाख महीने में 11 से 13 दिन तक मनाए जाने वाले इस रम्माण में भूम्यांल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी देता है। परिवारों एवं ग्राम क्षेत्र के देवताओं से भेंट का अवसर भी रम्माण देता है। उत्तराखण्ड की समृद्ध गौरवशाली परम्परा का प्रतीक है, रम्माण।
Reported By: Dr. Anil Chandola