यूं तो हरिद्वार विश्व विख्यात नगर है पर उसका कोई हरद्वारी लाल नही है। गंगा उसकी प्रमुख पहचान है। ज्ञान एवं श्रद्धातीर्थ की नगरी आधुनिक भौतिकवादी आलीशान सुख-सुविधा की ओर बढ़ चली है। शहर मे सबकुछ अव्यस्थित है। इसका एक प्रमुख कारण यह हो सकता है कि हरिद्वार नगर से किसी को मोह नही है, हरिद्वार हमारा है कहने वाला कोई हरद्वारी लाल नही है।
यहां की मूल स्थायी आबादी पंडा, पुरोहितों व मुसलमानों की है जो ज्वालापुर में रहते हैं। धार्मिक कर्मकांड करने कराने के लिए ही वे सुबह हरिद्वार आते हैं और शाम को चले जाते हैं। उनका सुख-दुख, मरना- जीना, ज्वालापुर में होता है। हरिद्वार तो यह दोहन करने के लिए ही आते हैं संवारने के लिए नही।
दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान से बड़ी में संख्या में आवारा पूंजी के लोगों को हरिद्वार भा गया है। बड़े- बड़े बहुमंजिले होटलों, अपार्टमेंटों, आश्रमों, कालोनियों व ट्रांसपोर्ट के व्यवसाय पर उनका कब्जा हो गया हो गया है। पैसा फेंको तमाशा देखों। भौतिक पूंजी के प्रवाह में गंगा का प्रवाह धीमा पड़ता जा रहा है। जिसके चलते हरिद्वार की शंख ध्वनि, घंटे, घडिय़ालों की पहचान, मिजाज, कल्चर शोर में लुप्त प्राय होता जा रहा है। भौतिक सुख की लंपट प्रतिद्विता घिनौने अपराधों को जन्म दे रही है।
सब एक से एक तुर्रम खां हो गए हैं। हरिद्वार से चाहने के लिए हर कोई आ रहा है पर उसको अपना समझने वाला कोई हरद्वारी लाल नही आ रहा है। जब तक हरिद्वार मेरा शहर है कहने वाला कोई खड़ा नही होगा, उसकी पहचान को बनाए व बचाया नही जा सकता है।
हरिद्वार को इधर-उधर से खाने और कमाने के मुख्य उद्देश्य से इक्ट्ठा हुए भानुमति के कुनबे से हरिद्वार का भला होने वाला नही है।
Reported By: Ramesh Khanna