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गंगा अवतरण: भगीरथ की तपस्या से लेकर गंगासागर तक की पौराणिक यात्रा

Ganga Avtaran

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मां गंगा जैसा अद्भुत भला कौन । तीन अनादि स्वरूप ब्रह्मा विष्णु महेश और तीनों का सानिध्य भगवती गंगा को प्राप्त । क्षीरसागर में विष्णु के चरणों से प्रकट हुईं , ब्रह्मा के कमण्डलु में रहीं , स्वर्ग में बहती हुई भगीरथ की प्रार्थना पर शिव की जटाओं में समाई और फिर पर्वतों के जटाजूटों से निकल गंगा दशहरे के दिन मैदानी भू भाग पर गंगासागर तक बही । गंगा की शीतलता को जटाओं में सामने वाले शिव ने इस शीतलता के बल पर समुद्र मंथन के समय विषपान कर लिया था ।

वैशाख शुक्ल सप्तमी के दिन स्वर्ग से शिव की जटाओं में उतरीं गंगाजी ज्येष्ठ शुक्ल दशमी पर हरिद्वार के मैदान में आईं थीं । तब से धरती पर गंगा के अवतरण का पावन पर्व धर्म नगरी और अन्य गांगेय क्षेत्रों में धूमधाम से मनाया जाता है । देश भर से गंगा तटों पर पहुंचे लाखों श्रद्धालु पतित पावनी में डुबकी लगाते हैं । त्रेता युग में भगीरथ के पीछे पीछे चलती गंगा सवा महीने बाद गंगा सागर स्थित कपिल मुनि के आश्रम में पड़ी साठ हजार सगर पुत्रों की राख बहाते हुए समुद्र से जा मिलीं थीं । उनकी एक धारा पद्मा नाम से बांग्लादेश में बहती है ।

पौराणिक आख्यानों के अनुसार अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा ले जाते हुए सगर पुत्रों ने तपस्या करते कपिल मुनि से अभद्र आचरण किया था । राजा सगर अयोध्या के प्रसिद्ध इक्छवाकु वंश के प्रतापी राजा थे । वे भगवान राम के पुरखे थे । राजा सगर ने धरती के सबसे बड़े अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया । राजाओं को निमंत्रण का जिम्मा सगर ने अपने पुत्रों को सौंपा । बंगाल राज्य से गुजरते हुए रास्ते में कपिल मुनि का आश्रम पड़ा और सगर पुत्रों ने उनकी तपस्या भंग कर दी । मुनि ने साठ हजार सगर पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया । तब से उनकी राख वहीं पड़ी थी । मुनि ने कहा कि इन पापियों का उद्धार तभी होगा जब धरती पर गंगा आएंगी ।

गंगा को धरती पर लाने में राजा सगर विफल हुए । उनके बाद उनकी चार पीढ़ियां गंगा को लाने में लगी रही परंतु सफल नहीं हो पाई । इन सभी ने अपने अपने काल में गंगा को गंगा सागर तक ले जाने का प्रयास किया , रास्ता तैयार कराया । अंत में भगीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न हुई और शिव की अनुमति पर उनकी जटाओं में आन समाई । भगीरथ ने फिर भगवान शंकर को प्रसन्न किया । शिव की अनुमति मिल जाने पर जनकल्याण के लिए गंगा शिव की जटाओं से होते हुए धरती पर आने को राजी हुई । आगे आगे शंख बजाते भगीरथ और पीछे पीछे चलतीं गंगा मैया । ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा हरिद्वार पहुंची और ब्रह्मकुंड से होते हुए भगीरथ के पीछे पीछे चलते सवा महीने बाद सगर पुत्रों की राख बहाने कपिल मुनि के आश्रम होते हुए सागर में विलीन हो गईं ।

हरिद्वार पहुंचने पर भगीरथ को फिर एक मुसीबत का सामना करना पड़ा था । हुवा यूं कि रास्ते में ऋषि दत्तात्रेय तपस्या कर रहे थे । गंगा उनका आसान , दंड कमंडल बहाकर चलने लगी । आसन निकल जाने से ऋषि की तपस्या भंग हुई और उन्होंने आगे बढ़ती गंगा को अपने तेज से रोक लिया । गंगा वहीं आवर्तमय घूमने लगी , आगे न बढ़ सकी । तब भगीरथ और गंगा ने दत्तात्रेय से क्षमा मांगी उनकी प्रार्थना की । जनकल्याण का प्रयोजन जानकर ऋषि ने गंगा को बंधन मुक्त कर दिया । त्रेता युग में जिस स्थान पर गंगा आवर्तमय हुई वह स्थान कुशावर्त है । गंगा आज भी कुशावर्त पर एक बार पीछे लौटती हैं और आवर्त बनाकर फिर आगे बढ़ती हैं । तो कहिए हर हर गंगे जय जय गंगे !

 

Reported By: Ramesh Khanna

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