15 अप्रैल को हिमाचल प्रदेश का स्थापना दिवस मनाया जाता है। इस दिन सन् 1948 में हिमाचल प्रदेश को भारत के एक प्रांत (चीफ कमिश्नर प्रोविंस) के रूप में स्थापित किया गया था। यह दिन हिमाचल दिवस के रूप में जाना जाता है और राज्य में सार्वजनिक अवकाश होता है। हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य है कि 25 जनवरी को हिमाचल प्रदेश का पूर्ण राज्यत्व दिवस मनाया जाता है, क्योंकि 1971 में इसी दिन इसे भारत का 18वाँ पूर्ण राज्य घोषित किया गया था। मैं एक दिन पहले शिमला के द रिज मैदान में था, जहाँ मैंने हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार की विशाल मूर्ति देखी। उस समय मुझे हिमाचल और उत्तराखंड का विश्लेषण करने का विचार आया।
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड, दोनों ही पर्वतीय राज्यों की अपनी-अपनी विशिष्ट पहचान और इतिहास है, परंतु जब बात विकास, नीतियों और नेतृत्व की आती है, तो हिमाचल प्रदेश का नाम एक प्रेरणा के रूप में उभरता है, विशेषकर डॉ. यशवंत सिंह परमार के योगदान के कारण। डॉ. परमार न केवल हिमाचलवासियों के हृदय में उनके प्रति श्रद्धा को दर्शाता है, बल्कि यह भी प्रश्न उठाता है कि उत्तराखंड, जो अपनी स्थापना के 25 वर्षों बाद भी, हिमाचल की तुलना में कई क्षेत्रों में पीछे क्यों रह गया है। आइए, इस विषय को विस्तृत रूप में समझने का प्रयास करते हैं।
हिमाचल में गैर-हिमाचलियों के अंधाधुंध भूमि खरीद पर रोक: एक दृढ़ नीति
डॉ. यशवंत सिंह परमार का नाम हिमाचल प्रदेश के लिए केवल एक राजनेता का नाम नहीं, बल्कि एक दृष्टिकोण, एक विचारधारा और एक स्वप्न का प्रतीक है। उन्होंने हिमाचल को न केवल एक राज्य के रूप में स्थापित किया, बल्कि उसकी आत्मा को संजोया। उनकी नीतियां—चाहे वह बागवानी को बढ़ावा देना हो, भूमि सुधार हो, या स्थानीय संसाधनों का संरक्षण—आज भी हिमाचल की प्रगति का आधार बनी हुई हैं। परमार जी का दृष्टिकोण था कि पहाड़ का विकास तभी संभव है, जब उसकी संस्कृति, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का संतुलन बना रहे। उन्होंने बागवानी को न केवल आर्थिक गतिविधि बनाया, बल्कि उसे हिमाचल की पहचान से जोड़ा। सेब के बागानों ने न केवल किसानों की आजीविका को समृद्ध किया, बल्कि हिमाचल को वैश्विक स्तर पर एक नई पहचान दी।
उनकी नीतियों में दूरदर्शिता थी। भूमि संरक्षण के लिए बनाए गए नियम, जिसमें बाहरी लोगों को अंधाधुंध जमीन खरीदने से रोका गया, आज भी हिमाचल की सामाजिक और आर्थिक स्थिरता का आधार हैं। परमार जी ने यह सुनिश्चित किया कि हिमाचल का विकास उसकी अपनी शर्तों पर हो, न कि बाहरी प्रभावों के अधीन। यही कारण है कि हिमाचल में हर नेता, चाहे वह सत्तापक्ष का हो या विपक्ष का, डॉ. परमार के प्रति श्रद्धा रखता है। उनकी विरासत केवल नीतियों में ही नहीं, बल्कि हिमाचलवासियों के आत्मविश्वास और स्वाभिमान में भी झलकती है।
उत्तराखंड: खोई राह और अधूरी आकांक्षाएं
दूसरी ओर, उत्तराखंड, जो अपनी प्राकृतिक संपदा और सांस्कृतिक धरोहर के लिए जाना जाता है, अपनी स्थापना के 25 वर्षों में वह गति नहीं पकड़ सका, जो हिमाचल ने अपने प्रारंभिक वर्षों में प्राप्त की थी। उत्तराखंड के सामने कई चुनौतियां रही हैं, जिनमें से कुछ भौगोलिक हैं, तो कुछ नीतिगत और नेतृत्व से संबंधित। जहां हिमाचल में डॉ. परमार जैसे दूरदर्शी नेता ने शुरुआत से ही स्पष्ट दिशा दी, वहीं उत्तराखंड में नेतृत्व का अभाव और नीतिगत अस्पष्टता ने विकास की राह को जटिल बनाया।
उत्तराखंड में बागवानी और कृषि को वह प्रोत्साहन नहीं मिल सका, जो हिमाचल में बागवानी ने प्राप्त किया। हिमाचल के सेब और अन्य फलों ने जहां वैश्विक बाजार में अपनी जगह बनाई, वहीं उत्तराखंड के स्थानीय उत्पाद, जैसे कि काफल, बुरांश, या अन्य जड़ी-बूटियां, अभी भी अपनी पूरी संभावना तक नहीं पहुंच सके। इसके अतिरिक्त, उत्तराखंड में भूमि की अंधाधुंध बिक्री ने स्थानीय लोगों के बीच असुरक्षा की भावना को जन्म दिया है। जहां हिमाचल ने बाहरी निवेश को नियंत्रित करने के लिए सख्त नियम बनाए, वहीं उत्तराखंड में ऐसी नीतियों का अभाव रहा। परिणामस्वरूप, पहाड़ों की जमीनें बाहरी लोगों के हाथों में चली गईं, और स्थानीय लोग अपनी ही धरती पर पराए से महसूस करने लगे।
नेतृत्व का अंतर: परमार की विरासत बनाम उत्तराखंड की खोज
डॉ. यशवंत सिंह परमार ने हिमाचल को एक ऐसी नींव दी, जो आज भी अडिग है। उनके बाद के नेताओं ने, भले ही अपनी-अपनी विचारधाराओं के साथ, उनकी नीतियों को सम्मान दिया और उन्हें आगे बढ़ाया। यह एकता और निरंतरता हिमाचल की ताकत रही है। दूसरी ओर, उत्तराखंड में नेतृत्व ने बार-बार दिशाहीनता का परिचय दिया। यहां के नेताओं पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने बाहरी प्रभावों को प्राथमिकता दी, जिसके कारण स्थानीय हितों की उपेक्षा हुई। उत्तराखंड की जनता में एक यशवंत सिंह परमार जैसे व्यक्तित्व की चाहत स्पष्ट दिखाई देती है—ऐसा नेता जो पहाड़ की आत्मा को समझे, जो स्थानीय संस्कृति और संसाधनों को संरक्षित करे, और जो विकास को केवल आर्थिक आंकड़ों तक सीमित न रखे, बल्कि उसे सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान से जोड़े।
उत्तराखंड के लिए राह: परमार से प्रेरणा
उत्तराखंड के लिए यह समय आत्ममंथन का है। हिमाचल का उदाहरण सामने है—यह सिखाता है कि विकास तब सार्थक होता है, जब वह स्थानीय जरूरतों और मूल्यों के अनुरूप हो। उत्तराखंड को चाहिए कि वह अपनी बागवानी, जड़ी-बूटियों, और पर्यटन की संभावनाओं को संगठित रूप से विकसित करे। भूमि सुधार और स्थानीय संसाधनों के संरक्षण के लिए सख्त नीतियां बनानी होंगी। साथ ही, नेतृत्व को चाहिए कि वह डॉ. परमार की तरह दूरदर्शी हो, जो न केवल वर्तमान को देखे, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी एक मजबूत नींव रखे। उत्तराखंड की जनता की आकांक्षाएं कम नहीं हैं। वे चाहते हैं कि उनकी धरती की पहचान बनी रहे, उनकी संस्कृति फले-फूले, और उनका विकास उनकी अपनी शर्तों पर हो। यह सही है कि उत्तराखंड में अभी तक कोई यशवंत सिंह परमार पैदा नहीं हुआ है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसा संभव नहीं है। उत्तराखंड की मिट्टी में वह शक्ति है, जो सही नेतृत्व और दिशा के साथ हिमाचल की तरह ही प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकती है।
Reported By: Shishpal Gusain