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कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार: हिमालय-सा विराट व्यक्तित्व, साहित्य और इतिहास- पुरातत्व का अनमोल रत्न

Captain Shoorveer Singh Panwar

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पुराने दरबार में, जहाँ पर्वतों की गोद में इतिहास साँस लेता है, कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार ने अपने अंतिम वर्ष बिताए। यहाँ, अपने पुरखों की दीवारों से घिरे, वह साधना के सागर में डूबे रहे। यह वही स्थान था, जहां कभी गुलेरिया महारानी रहा करती थीं। कैप्टन साहब ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष प्राचीन ग्रंथों की खोज और ऐतिहासिक शोध में समर्पित किए। उनकी यह साधना इतनी गहन थी कि, जैसा कि इतिहासकार व पुरातत्व विद पद्मश्री यशवंत सिंह कटोच ने बताया, उनके घर की भित्तियों में सांप विचरते थे, पर उनकी एकाग्रता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। इतिहास और पुरातत्व के लेखन में तल्लीन, किताबों के बीच जीते, वह समय को शब्दों में पिरोते। कैप्टन साहब ने अपने अंतिम दिनों में परिवार से कहा, “मेरी किताबें संभालकर रखना।” यही उनकी असली पूँजी थी। इन किताबों की बदौलत देशभर के साढ़े तीन सौ से अधिक शोधार्थियों ने पीएचडी की, मानो ज्ञान का सूरज उनकी लेखनी से उदित हुआ।

आज, 5 मई 2025 को, हम एक ऐसे महान व्यक्तित्व की 34वीं पुण्यतिथि मना रहे हैं, जिनका नाम भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार—एक नाम, जो न केवल एक सैन्य अधिकारी, विद्वान, और साहित्यसेवी के रूप में जाना जाता है, बल्कि एक ऐसी प्रेरक शख्सियत के रूप में भी, जिसने अपनी विनम्रता, विद्वता और समर्पण से हर क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी। हिमालय की भांति अडिग और विशाल, कैप्टन शूरवीर सिंह का जीवन एक ऐसी गाथा है, जो हमें न केवल गर्व का अनुभव कराती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि सच्ची महानता सादगी और समर्पण में निहित होती है।

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

1907 में जन्मे कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार टिहरी रियासत के राजपरिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता श्री विचित्र शाह, टिहरी गढ़वाल के तीसरे राजा श्री प्रताप शाह के पुत्र थे, और उनके ताऊ श्री कीर्ति शाह टिहरी के चौथे राजा बने। इस राजसी पृष्ठभूमि के बावजूद, शूरवीर सिंह में कभी अभिमान या अहंकार का लेशमात्र भी नहीं आया। उनके भाई नरेंद्र शाह के राजा बनने के बाद भी उनकी सादगी और विद्वता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। लाहौर में प्राप्त उच्च शिक्षा ने उन्हें एक मजिस्ट्रेट, सैन्य अधिकारी, और इतिहासकार के रूप में स्थापित किया। उनकी विद्वता का आलम यह था कि हिंदी, संस्कृत और भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों के क्षेत्र में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के परिवार में उनकी दो पुत्रियां और एक पुत्र थे। उनकी बड़ी पुत्री भवनेश्वरी का विवाह हिमाचल प्रदेश के लेफ्टिनेंट जनरल पी.सी. मनकोटिया से हुआ, पुत्र समर विजय सिंह 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी बने और राजस्थान पुलिस के डीजी के पद तक पहुंचे, जबकि छोटी पुत्री रीता कुमारी का विवाह तमिलनाडु कैडर के आईएएस अधिकारी पी.सी. चौहान से हुआ। कैप्टन साहब ने न केवल स्वयं उच्च शिक्षा प्राप्त की, बल्कि अपने बच्चों के लिए भी ऐसे जीवनसाथी चुने, जो उनकी विद्वता और मूल्यों के अनुरूप थे।

सैन्य, साहित्य और इतिहास के क्षेत्र में योगदान

कैप्टन शूरवीर सिंह ने भारतीय सेना में कैप्टन के रूप में सेवा की, और उस समय यह पद आज के बड़े अधिकारी के समकक्ष माना जाता था। 1952 में कश्मीर में धारा 370 लागू करने की तैयारियों के दौर में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद उन्होंने सेना से अवकाश ग्रहण किया । प्राचीन ताम्रपत्रों और ग्रंथों की खोज में उनकी गहरी रुचि थी, जिसके कारण उन्हें “हिमालय का विद्वान” कहा जाता था। उनकी विद्वता से प्रभावित होकर हिंदी और संस्कृत के महान विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी प्रशंसा में लिखा, “कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार सब प्रकार के सम्मान के योग्य हैं। मैं उनके व्यक्तित्व से परिचित हूं। वह एक काबिल हिंदी के विद्वान हैं।” यह पत्र 30 नवंबर 1976 को वाराणसी से डॉ. महावीर प्रसाद गैरोला को लिखा गया था, जिसमें कैप्टन साहब को सम्मानित करने के निर्णय की सराहना की गई। इसी तरह, 13 सितंबर 1958 को दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष श्री महेंद्र कुमार ने उन्हें पत्र लिखकर उनकी उदारता और विशाल हृदयता की प्रशंसा की। उन्होंने लिखा, “आप मनुष्य ही नहीं, देवता हैं।” यह पत्र कैप्टन साहब के व्यक्तित्व की विशालता और उनकी विद्वता के प्रति सम्मान का प्रतीक है।

अनिल रतूड़ी को 1987 में आईपीएस बनने पर बधाई देने मसूरी पहुँचे

कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उनके दर्शन मात्र से लोग अभिभूत हो उठते थे। सन् 1987 की एक स्मरणीय घटना इसका साक्षी है, जब मसूरी निवासी अनिल रतूड़ी, जो उस वर्ष आईपीएस के लिए चयनित हुए थे, को बधाई देने कैप्टन साहब उनके घर पधारे। उस दिन वे अपनी पारंपरिक अचकन में सजे थे, जिसने उनकी शालीनता और गरिमा को और निखारा। अनिल रतूड़ी स्मरण करते हैं कि कैप्टन साहब का आगमन केवल औपचारिक नहीं था; यह एक आत्मीय मुलाकात थी, क्योंकि उनका पुत्र समरवीर सिंह अनिल का सहपाठी था। कैप्टन साहब ने न केवल अनिल को बधाई दी, बल्कि उनके मनोबल को भी ऊँचा किया। उनकी बातों में प्रेरणा थी, उनके शब्दों में गहराई थी, और उनकी उपस्थिति में एक ऐसी ऊर्जा थी, जो हर किसी को प्रभावित करती थी।

सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भ

कैप्टन शूरवीर सिंह का जीवन उस दौर में बीता, जब टिहरी रियासत में राजशाही के खिलाफ आंदोलन अपने चरम पर थे। उनके छोटे भाई श्री बलदेव सिंह, जो कीर्तिनगर में मजिस्ट्रेट थे, उस गोलीकांड में शामिल रहे, जिसमें नगेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद हुए। इस घटना को इतिहास में कीर्तिनगर गोलीकांड के रूप में जाना जाता है, जिसकी कैप्टन शूरवीर सिंह से कोई प्रत्यक्ष संलिप्तता नहीं थी। इसी तरह, तिलाड़ी गोलीकांड, जिसे यमुना का जलियांवाला बाग कहा जाता है, उस दौर की त्रासदी का प्रतीक है। कैप्टन साहब ने इन घटनाओं से स्वयं को अलग रखा और अपने जीवन को साहित्य, इतिहास और समाजसेवा के लिए समर्पित किया।

अंतिम दिन और विरासत

5 मई 1991 को कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार ने टिहरी के पुराने दरबार में अपनी अंतिम सांस ली। उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की थी कि वे अपने पैतृक घर में ही रहना चाहेंगे, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो। इस इच्छा को उन्होंने अंत तक निभाया। उनकी मृत्यु के साथ एक युग का अंत हुआ, पर उनकी विरासत आज भी जीवित है। उन्होंने भौतिक संपत्ति तो कुछ ज्यादा नहीं छोड़ी, पर अपने पोतों कीर्ति और भवानी के लिए एक ऐसी विरासत छोड़ी, जो उनकी विद्वता, विनम्रता और समर्पण को हर दिन जीवंत रखती है।
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कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार का जीवन एक प्रेरणा है। वे एक सैन्य अधिकारी, इतिहासकार, साहित्यसेवी और सबसे बढ़कर एक सज्जन पुरुष थे। उनकी विद्वता ने हिंदी, संस्कृत और भारतीय इतिहास के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया। उनकी विनम्रता और उदारता ने उन्हें अपने समकालीनों का प्रिय बनाया। हिमालय की तरह विशाल और अडिग, उनका व्यक्तित्व आज भी हमें यह सिखाता है कि सच्ची महानता ज्ञान, सादगी और समाज के प्रति समर्पण में निहित होती है। उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें नमन करते हैं और उनके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेते हैं।
“हिमालय का यह विद्वान आज भले ही हमारे बीच न हो, पर उनकी विद्वता और सादगी की गूंज सदा अमर रहेगी।”

 

 

Reported By: Shishpal Gusain

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