ॐ श्री गुरुवे नमः
परकाया प्रवेश कोई कपोल कल्पित बात नहीं है। यह हमारी सनातन संस्कृति में योग का एक महत्वपूर्ण पहलू है जिसे जगदगुरु शंकराचार्य जी ने काशी (वाराणसी) के विद्वानों के समक्ष प्रत्यक्ष किया था। (जिस पर एक पुस्तक “वत्यासान का कामसूत्र” भी लिखी गई, जो आज भी कई आयुर्वैदिक कॉलेजों में पढ़ाई जाती हैं।) परन्तु हमारे पूर्व पीढ़ियों की उदासीनता के कारण यह योग की महत्वपूर्ण विधा लोप हो गई। आज भी यह क्रिया तिब्बत के कुछ गिने-चुने तपस्वी लामाओं के पास हैं। कुछ दिन पूर्व एक सिद्ध तिब्बती लामा से कुछ समय व्यतीत करने का सौभाग्य मिला उन्हीं से प्राप्त ज्ञान के आधार पर मैंने अथक प्रयास से यह लेख लिखा है, ताकि हमारी आज भटक गई युवा पीढ़ी को हमारी प्राचीन अतीगौरवशाली योग विधाओं का ज्ञान हो सके।
परकाया प्रवेश तथा मंत्र साधना
परकाया प्रवेश—
परकाया-प्रवेश यह वस्ततः तन्त्र-विद्या की साधना है, जिसे बाद में योगियों ने भी अपना लिया। इसमें अपने सूक्ष्म शरीर को जीवित अवस्था में अपने शरीर से निकालकर अन्य शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। तान्त्रिकों एवं योगियों के लिए इसकी उपयोगिता तब होती है, जब उनका अपना स्थूल जर्जर हो जाता है और वे अपने साधना-कार्य को और भी विस्तृत करना चाहते हैं। मझे जो जान है. उसके अनुसार यह साधना कुण्डलिनी की साधना को पूर्ण करने के लिए की जाती है। गोंकि क्योकि ब्रह्म का प्रत्यक्ष उसी से होता है और सिद्ध तान्त्रिक एवं योगियों का लक्ष्य‘ब्रह्म‘ का प्रत्यक्ष करना ही होता है।यह साधना तभी की जा सकती है, जब सभी ब्रह्मरन्ध्र, ऊर्जाधाराओं एवं चक्रों को पूरी तरह से खोलकर उसे अभ्यास द्वारा नियन्त्रित कर लिया गया हो। इस स्थिति में ब्रह्म का अनुभव तो होने लगता है. उसकी सत्ता एवं चक्रों आदि का भी ज्ञान हो जाता है, परन्तु प्रत्यक्ष नहीं होता। ब्रह्म को प्रत्यक्ष करने के लिए कुण्डलिनी को जाग्रत करना पड़ता है।
कुण्डलिनी की साधना एक मिश्रित साधना है। इसमें कई साधनाएं साथ-साथ शृंखलाबद्ध है। जब तक इस श्रंखला का प्रारम्भ श्रृंखला की प्रथम साधना से नहीं किया जाता, इसमें सफलता प्राप्त नहीं होती।
परकाया-प्रवेश भी एक मिश्रित साधना ही है। इसमें भी कई साधनाओं की श्रृंखला है, पर आधी कुण्डलिनी साधना की श्रृंखला से ही है।परकाया-प्रवेश ,जिस सूक्ष्म शरीर की हम पूर्व में चर्चा कर आये हैं, वह एक ऊर्जा शरीर है। ऊर्जा तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व है। सक्ष्म तत्त्वों में एक गुण होता है। वह अपने आयतन को बढ़ा भी सकते हैं और घटा भी सकते हैं। सूक्ष्म तत्त्वों या पदार्थों का यह गुण वायु, वाष्प, धुएं आदि में ही प्रकट होने लगते हैं। इसी गुण के कारण सूक्ष्म, ऊर्जा तत्त्व स्थूल पदार्थों में विरल से कठोर हो जाता है।
कुण्डलिनी साधना करते-करते जब मूलाधार की कुण्डली अनाहत चक्र में प्रवेश करती है, तब सूक्ष्म शरीर का नाता स्थूल शरीर से नाममात्र को ही रह जाता है। इस साधना से सभी मुख्य ऊर्जा चक्र शृंखलाओं को इस स्थिति में लाया जाता है। अनाहत चक्र जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर का केन्द्र है। यदि (-) पोल को इसमें मोड़ा जाता है, तो (-) पोल सहस्रार को भी इसमें खींचकर संकुचित किया जा सकता है। जैसे चैनल गेट या पत्तियों से निर्मित हाथ का पंखा फैले हुए से। सिमट जाता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर भी अनाहत चक्र में सिमट आता है। इसके बाद इसे नाभि के रास्ते बाहर निकाला जाता है। इसमें उर्ध्व प्राणायाम की प्रक्रिया अपनायी जाती है।पारम्भ में इस संकोचन का अभ्यास धीरे-धीरे किया जाता है, फिर उसे ट्यून करके केंद्रीभूत करना होता है और तब सम्पूर्ण ऊर्जा शरीर कमल की भांति अपनी पंखुड़ियों को समेट कर कमल-कली की भांति अनाहत चक्र में सिमट जाता है। उपर्युक्त प्रक्रिया में यह नहीं समझना चाहिए कि स्थूल शरीर से उसका सम्बन्ध पूर्णतया टूट जाता है। वह सूक्ष्म ऊर्जा तन्तुओं से प्रत्येक कुण्डलिनी चक्रों की श्रृंखला (नाड़ी त्रिगुण में स्थापित चक्रों की श्रृंखला) में स्थापित अनाहत चक्र के केन्द्र से एक सूक्ष्म पतली रज्जूनुमा ऊर्जा रेखा से जुड़ा रहता है। यह सूक्ष्म रज्जू निगणी ऊर्जाधारा का तन्तुरूप होता है। इस प्रकार सभी अनाहत चक्रों के तन्तु आपस में। एकीकत होकर मिल जाते हैं और मुख्य अनाहत चक्र भी इसी प्रकार की रज्जू से जुड़ा, जो तन्तु रूप होता है, शरीर से निकलता है और कहीं भी जा सकता है। यह मन से भी तीव्र गति से भ्रमण करता है और इच्छानुसार पुनः शरीर में प्रवेश कर जाता है।प्रवेश एवं निकास-द्वार (परकाया-प्रवेश)
इस सम्बन्ध में अनेक योगियों एवं तान्त्रिकों का कथन है कि सूक्ष्म शरीर को नाभि से भी निकाला जा सकता है, किन्तु इसके सम्बन्ध में शास्त्रीय मत यह है कि यह हृदय स्थल से निकाला जाता है; क्योंकि अनाहत का स्थान वही है। यह हृदय के मर्म से निकलकर बाहर जाता है और उसी द्वार से अन्दर प्रविष्ट होता है।सूक्ष्म शरीर का सम्पूर्ण निष्कासन(परकाया-प्रवेश)
जब सूक्ष्म शरीर को बाहर निकालकर अनाहत चक्र से जुड़ी रज्जनमा त्रिगुणी ऊर्जाधारा के तन्तु मूल को उसके केन्द्र से तोड़ दिया जाता है, तो अनाहत चक्र का कमल शरीर से अलग हो जाता है। इस समय यह ऊर्जा ज्योतिरूप कमल होता है, जो ऊर्जाज्योति का स्वरूप बन जाता है। इसमें सम्पूर्ण ऊर्जा शरीर अपने ऊर्जा तन्तुओं के साथ सिमटा होता है।
प्रेतात्मा भी सूक्ष्म शरीर ही होता है और यह भी स्वयं को कुछ हद तक सिकोड़ सकता है, परन्तु इसमें और इस ज्योति कमल में अन्तर यह होता है कि प्रेतात्मा स्वयं के ऊर्जा स्वरूप को एक स्थान पर केन्द्रित नहीं कर सकता। यह एक भ्रम है कि प्रेतात्मा कोई भी स्वरूप धारण कर सकती है। यह दूसरों को सम्मोहित करके उसे ऐसा दृश्य दिखाती है, जो नहीं है। यह क्रिया कोई। उन्नत आत्मबल से युक्त प्रेतात्मा ही कर सकती है, सभी नहीं।
दूसरी मान्यता यह है कि प्रेतात्मा छिद्र से प्रवेश कर जाती है, खिड़कियां-दरवाजे बजने लगते हैं, आंधी-तूफान चलने लगता है। यह भी एक भ्रम है। प्रेतात्मा का प्रकृति पर कोई वश नहीं है और छिद्र से प्रविष्ट होने का कोई अर्थ ही नहीं; क्योंकि स्थूल तत्त्व उसे रोक नहीं सकते। वह पत्थरों से भी पारगमन कर सकती है।
किन्तु यह कमल प्रेतात्मा के समान होते हुए भी प्रेतात्मा नहीं है। यह केन्द्रीभूत सूक्ष्म शरीर है।दूसरे शरीर में प्रविष्टि(परकाया-प्रवेश)
किसी ऐसे ताजे शव में जिसके कोषाण , द्रव्य एवं त्वचा आदि का क्षरण प्रारम्भ नहीं हुआ हो, यही ज्योतिकमल हृदयस्थल से अन्दर प्रविष्ट हो जाता है और अन्दर पहुंचकर इसकी पंखुड़ियां फैल जाती हैं। यह फैलने की प्रक्रिया पहले धीमी, फिर तेज गति से होती है। इससे इस शरीर में प्राणशक्ति का संचार होने लगता है और शरीर पुनः अपनी प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है।
किन्तु किसी रोगी, सर्प-विष से मरे व्यक्ति, जिसका कोई ऐसा अंग विकृत हो गया हो, जिससे यह सूक्ष्म शरीर के रहने के अयोग्य हो गया हो या वृद्ध जर्जर काया का प्रयोग इसमें नहीं किया जाता।
इसमें कोई लाभ भी नहीं है; क्योंकि इसमें साधक का सूक्ष्म शरीर व्याप्त नहीं हो सकता।
हो भी गया, तो तुरन्त उसे छोड़ देगा।
अतः साधक इसके लिए स्वस्थ एवं सबल शरीर की तलाश करता है। ऐसा शरीर किसी युवा का ही हो सकता है,जो दम घुटने से, पानी में डूबकर (शरीर फूला न हो), हार्टफेल करनेआदि से या भय से मरा हो।
ऐसा कहा जाता है कि बर्फ या ठण्डे पानी में दबा हुआ कोई शरीर भी साधक के काम आ जाता है, भले ही वह कुछ घण्टों या दिनों पूर्व की लाश हो। वह सर्वप्रथम उसका औषधि द्वारा उपचार करता है, फिर उसे मालिश से गरम करके, तब अपना शरीर त्यागकर उसमें प्रविष्ट होताकेवल शरीर ही बदलता है, व्यक्ति नहीं(परकाया-प्रवेश)
इस प्रकार परकाया-प्रवेश अपने शरीर को त्यागकर दूसरे के शरीर में प्रवेश करना है। इस किया के पश्चात् साधक को नया शरीर प्राप्त हो जाता है और वह उसकी आयु (ऐसी मान्यता है कि स्वस्थ शरीर वाले की मृत्यु अकाल मृत्यु होती है और उसकी आयु शेष रहती है। इसका सक्ष्म शरीर प्रेतात्मा के रूप में उस आयु से कई गुणा आयु को भोगता है) तक उस शरीर का प्रयोग कर सकता है। चाहे, तो बीच में ही उसे त्यागकर नया शरीर धारण कर सकता है। इस प्रकार वह अनेक शरीर धारण करता हुआ लम्बे समय तक स्थूल जगत में उसी जीवन को जीता रह सकता है; क्योंकि इस प्रक्रिया में केवल शरीर ही बदलता है, जीवात्मा वही रहती है और उसका जीवन भी वही रहता है, अर्थात् उस शरीर में वह साधक होता है, अपनी पिछली अनुभूतियों एवं शक्तियों के साथ।शरीर के कर्मों को भुगतना पड़ता है –(परकाया-प्रवेश)
परकाया-प्रवेश इस प्रक्रिया द्वारा साधक जो शरीर प्राप्त करता है, वह दूसरे का होता है। मृत्य से पूर्व उसने अपने जीवन में अनेक कर्म किये होते हैं। उनमें अच्छा भी होता है और बुरा भी। किसी के द्वारा किये गये कर्म और बोली गयी वाणी का नाश कभी नहीं होता। वह समय के साथ-साथ विकराल होता जाता है। साधक जब मृत व्यक्ति का शरीर प्राप्त करता है, तो वह भौतिक जगत (लोक जगत) में अपनी पहचान खो देता है। वह लोगों की दृष्टि में वह प्राणी होता है, जो मर गया था। साधक यह बता नहीं सकता कि वह मृतात्मा नहीं, कोई दूसरी ही आत्मा है। वह ऐसा करेगा, तो लोग उसे भूत-प्रेत समझकर मार डालेंगे। साधक यह कहता भी नहीं; क्योंकि वह अपने उद्देश्य को गोपनीय रखना चाहता है।
इस प्रकार साधक को मृतात्मा के कर्मों, लोक में उसकी स्थिति, उसके रिश्ते-नातों का निर्वहन करना पड़ता है। अक्सर ऐसा होता है कि साधक लाश प्राप्त करके जंगल या गुफाओं में प्रयाण कर जाता है। तब उसे उस व्यक्ति के लोककर्मों को तो नहीं भुगतना पड़ता, परन्तु शरीर के कोषाणुओं में व्याप्त संस्कार बीज का भोग उसे तब भी भोगना पड़ता है।शंकराचार्य का परकाया-प्रवेश(परकाया-प्रवेश)
जगत् प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य के सम्बन्ध में उनके जीवन की एक कथा प्रसिद्ध है। तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के बाद वे उसका प्रचार करने निकले, तो परम्परा से प्रचलित विधि के अनुसार स्थान-स्थान पर शास्त्रार्थ करते हुए वे बिहार के मिथिला क्षेत्र में पहुंचे। यहां मण्डन मिश्र नामक एक महाविद्वान् रहते थे। वे शंकराचार्य से सहमत नहीं हुए और दोनों में गम्भीर शास्त्रार्थ हुआ। मण्डन मिश्र इस शास्त्रार्थ में हार गये। तब उनकी पत्नी शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने लगी। उसका तर्क यह था कि अर्धांगिनी पति के आधे अस्तित्व की मालिक होती है। उसको पराजित किये बिना मण्डन मिश्र की सम्पूर्ण पराजय नहीं मानी जा सकती। विद्वान् शंकराचार्य ने इस तर्क को स्वीकार कर लिया। दोनों में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ, तो मण्डन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को अपने सिद्धान्तों के अन्तर्गत कामशास्त्र के सिद्धान्तों की व्याख्या करने के लिए कहा। इस पर शंकराचार्य निरुत्तर हो गये; क्योंकि वे ब्रह्मचारी थे।(परकाया-प्रवेश)
कहा जाता है कि तब शंकराचार्य ने तीन महीने का समय प्राप्त किया और परकाया-प्रवेश विधि से एक मृत राजा के शव में समा गये। उन्होंने तीन महीने तक काम विद्या का अनुभव किया। और उसकी व्याख्या करके मण्डन मिश्र की पत्नी को पराजित किया।
परकाया प्रवेश मंत्र साधना-
सर्वप्रथम परकाया प्रवेश यंत्र व माला स्थापित करके साधना शुरू करें।
विनियोग-
|| ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अं सत्ये,
हं शवले हस्ख्फ्रे खर्वे, क्लीं रामे, हस्ख्फ्रे महापरिवृतो शून्यं परकाया सिद्धि, नारद ऋषिः, गायत्री छंदः, श्री गुरु देवता, गुं बीजं, ह्रीं शक्तिः, परकाया प्रवेश सिद्धि प्रीत्यर्थे मंत्र जपे विनियोगः ।।
मानस पूजा –
लं पृथ्वीव्यात्मकं गंधं समर्पयामि,
हैं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि,
यं वायव्यात्मकं धूपं समर्पयामि,
रं दहनात्मकं दीपं दर्शयामि,
सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि ।
मंत्र:
|| ॐ परात्पराये विनिर्मुक्तायै परकायै ह्रीं कुलेश्वयैं फट् ।।
Mantra:
Om paratparaye vinirmuktayai parkayai hreem kuleswoyaim fatt.
परकाया प्रवेश सिद्धि लम्बी प्रक्रिया है इसके लिये साधक को मंत्र का हवन करवाना होगा तथा लगातार जाप करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है, इसलिये गुरू जी यंत्र माला ले कर जाप करें तथा हवन में हिस्सा लें।गुरु के सनिंध्य में ही ये साधना करे।
Reported by- Ramesh Khanna Haridwar